आदित्यहृदय स्तोत्र शत्रुओं पर विजय दिलाता है

आदित्यहृदय स्तोत्र शत्रुओं पर विजय दिलाता है

वाल्मीकिकृत रामायण में  “आदित्यहृदय स्तोत्र  शत्रुओं पर विजय दिलाता है। ऋषि अगस्त्य ने  भगवान् श्री राम को युद्ध में रावण पर विजय प्राप्ति के लिए इस स्तोत्र को प्रदान किया था। भगवान राम ने भी रावण को मारने से पूर्व आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ किया । युद्ध से थकान महशुस करने पर अगस्त्य मुनि द्वारा प्रदत्त  स्तोत्र का जब श्री राम जी ने  पाठ किये तो क्षणभर में ही थकान नष्ट हो गया और सामने खड़े रावण को मारकर विजय प्राप्त किये। अतः शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए यह स्तोत्र एक अमोघ अस्त्र है।

इस स्तोत्र का नित्य और नियमित पाठ  करने से जीवन पथ पर आने वाली भयंकर से भयंकर समस्या का निवारण शीघ्र ही हो जाता है।  यह स्तोत्र सभी प्रकार के कृत पापों, कष्टों और शत्रुओं से मुक्ति देने वाला, शत्रुहंता, कल्याणकारी, मान-सम्मान, तेज और प्रतिष्ठा बढाने वाला अत्यंत मंगलकारी विजय स्तोत्र है। “

आदित्य हृदय स्तोत्र” के पाठ मात्र से निम्न समस्याओं का निवारण शीघ्र ही हो जाता है।

  • बार-बार असफलता के शिकार होने पर
  • शत्रु द्वारा कष्ट पहुंचाने पर
  • सरकार से कष्ट होने पर
  • मानसिक कष्ट के समय
  • तनाव होने पर
  • आत्मिक कष्ट होने पर
  • हृदय रोग ( Heart Attack)

यदि कोई भी व्यक्ति शुद्ध मन बुद्धि से श्रद्धापूर्वक इसका पाठ करता है तो उपर्युक्त वर्णित समस्या से शीघ्र ही मुक्त हो जाता है.

ज्योतिष और आदित्यहृदय स्तोत्र

यह पाठ सूर्यदेव को प्रसन्न करने के लिए किया जाता है ज्योतिष के अनुसार सूर्य देव का संबंध सूर्य ग्रह से है। ज्योतिष में सूर्य ग्रह आत्मा, पिता, यश, मान-सम्मान  का कारक है। यदि जन्मकुंडली में सूर्य कमजोर अवस्था में है जातक को अपमानित होता है, आत्मविश्वास की कमी होती है सरकार  से दंड मिलता है इत्यादि। ऐसी स्थिति में आदित्य हृदय स्तोत्र का नियमित पाठ करने से सूर्य ग्रह से होने वाले सारे सभी दोष शीघ्र ही दूर हो जाते हैं।  

कैसे करें आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ ?

प्रातःकाल नित्य क्रिया से निवृत होकर घर के मंदिर में पूजा करें इसी क्रम में सर्वप्रथम ॐ घृणि सूर्याय नमः का जप करें। उसके  बाद आदित्यहृदय स्तोत्र का पाठ भगवान सूर्य के प्रतिमा के समक्ष करना चाहिए। पाठ समाप्त होने के बाद सूर्य को तांबे के लोटे में जल भरकर अर्घ्य दें।

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्॥1॥

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।
उपागम्याब्रवीद्राममगस्त्यो भगवानृषिः॥2॥

राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्।
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसि॥3॥

आदियहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।
जयावहं जपेन्नित्यमक्षय्यं परमं शिवम्॥4॥

सर्वमंगलमांगल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम्॥5॥

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम्॥6॥

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः।
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः॥7॥

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः॥8॥

पितरो वसवः साध्या ह्यश्विनौ मरुतो मनुः।
वायुर्वह्निः प्रजा प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः॥9॥

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्।
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः॥10॥

हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।
तिमिरोन्मथनः शम्भुस्त्वष्टा मार्तान्ड अम्शुमान्॥11॥

हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनो भास्करो रविः।
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शंखः शिशिरनाशनः॥12॥

व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजुस्सामपारगः।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवंगमः॥13॥

आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः।
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः॥14॥

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्नमोऽस्तु ते॥15॥

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः॥16॥

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः।
नमो नमः सहस्राम्शो आदित्याय नमो नमः॥17॥

नम उग्राय वीराय सारंगाय नमो नमः।
नमः पद्मप्रबोधाय मार्ताण्डाय नमो नमः॥18॥

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूर्यायादित्यवर्चसे।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः॥19॥

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः॥20॥

तप्तचामीकराभाय वह्नये विश्वकर्मणे।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रवये लोकसाक्षिणे॥21॥

नाशयत्येष वै भूतं तदेव सृजति प्रभुः।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः॥22॥

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः।
एष एवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम्॥23॥

वेदाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्व एष रविः प्रभुः॥24॥

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव॥25॥

पूजसस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्।
एतत्त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि॥26॥

अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं वधिष्यसि।
एवमुक्त्वा तदाऽगस्त्यो जगाम च यथागतम्॥27॥

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत् तदा।
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान्॥28॥

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वा तु परं हर्षमवाप्तवान्।
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान्॥29॥

रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धाय समुपागमत्।
सर्वयत्नेन महता वधे तस्य धृतोऽभवत्॥30॥

अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः।
निशिचरपतिसम्क्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति॥31॥

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