जन्मकालीन करण का महत्त्व तथा उसका जीवन पर प्रभाव

जन्मकालीन करण का महत्त्व तथा उसका जीवन पर प्रभावजन्मकालीन करण का महत्त्व तथा उसका जीवन पर प्रभाव पंचांग अर्थात पञ्च अंग का मिश्रण। भारतीय हिंदू पंचांग पांच अंगों के मेल से बना है वह अंग है – तिथि, वार, योग, नक्षत्र और करण। इन्हीं अंगों के आधार पर ही कोई शुभ या मंगल कार्य किया जाता है। इनके मिलन से मुहुर्त का निर्माण होता इसलिए मुहूर्त का विशेष महत्व हो जाता है। मुहूर्त का निर्धारण सभी अंगों तिथि, वार आदि की शुद्धि करके किया जाता है। आज इस लेख में करण के सम्बंध में जानेंगे कि करण क्या है? कितने प्रकार के होते हैं और कौन सा करण शुभ है और कौन अशुभ। किस करण में शुभ कार्य करना चाहिए किसमे नहीं।

 करण क्या है ? इसका निर्धारण कैसे होता है ?

तिथि का अर्ध भाग करण के नाम से जाना जाता है। चन्द्रमा सूर्य के भोगांश से निकलकर जब 6 अंश पूर्ण कर लेता है तब एक करण पूर्ण होता है। एक तिथि में दो करण होते हैं- एक तिथि के पूर्वार्ध में तथा दूसरा उत्तरार्ध में।

कितने करण होते हैं ? 

ज्योतिष में कुल 11 करण होते हैं-

  • बव
  • बालव
  • कौलव
  • तैतिल
  • गर
  • वणिज
  • विष्टि
  • शकुनि
  • चतुष्पाद
  • नाग
  • किस्तुघ्न।

ऊपर से क्रमशःसात करण चर करण कहलाते हैं तथा एक निश्चित गति में ये 7 करण प्रत्येक चंद्रमास में 8-8 बार आते है। इस प्रकार से कुल मिलाकर 56 बार ये सातों करण आते है। इनमें विष्टि करण को भद्रा करण कहते हैं और भद्रा में कोई शुभ कार्य वर्जित माने गए हैं।

शकुनि, चतुष्पाद, नाग और किस्तुघ्न ये 4 स्थिर करण कहलाते हैं। ये एक चंद्रमास में एक एक बार ही आते हैं। जैसे —
कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी (14) के उत्तरार्ध में शकुनि,
अमावस्या के पूर्वार्ध में चतुष्पाद,
अमावस्या के उत्तरार्ध में नाग और
शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा के पूर्वार्ध में किस्तुघ्न करण होता है।

करणों के गुण एवं स्वभाव क्या है?

सभी करणों के गुण एवं स्वभाव भिन्न-भिन्न होते हैं। इन्हीं के आधार पर शुभ कार्य करने का निर्धारण भी किया जाता है।

बव:-  इस करण का प्रतीक चिन्ह सिंह है। यह चर करण है। इसका गुण समभाव है तथा इसकी अवस्था बालावस्था है। इस करण में जन्म लेने वाला जातक स्वावलम्बी होता है। स्वयं की इच्छा से काम करता है और तब तक संतुष्ट नहीं होता जब तक कार्य की सिद्धि न हो जाए। ऐसा व्यक्ति जहां भी रहता है उसकी अपनी पहचान और एकाधिकार होता है। ऐसा जातक बुद्धि और पराक्रम का उपयोग करता है इस कारण शत्रु इसे कभी पराजित नहीं करते।

बालव:-  इसका प्रतीक है चीता। यह भी चर करण है। यह कुमार माना गया है तथा इसकी अवस्था बैठी हुई मानी गई है। इस करण में उत्पन्न बालक तेज और फुर्तीला होता है। इसे कोई भी कार्य जल्दी करने की आदत होती है। वह आसपास के माहौल के प्रति पूर्ण रूपेण सजग होता है। इनके दाम्पत्य जीवन में क्लेश बना रहता है।

कौलव:- यह चर करण है। इसका प्रतीक चिन्ह शूकर को माना गया है। यह शुभ और उन्नत फल देने वाला है । इसे ऊर्ध्व अवस्था का करण माना गया है।  ऐसा व्यक्ति निडर होता है तथा संयुक्त परिवार का समर्थक होता है। व्यक्ति स्वयं के मान-सम्मान और पहिचान बनाने के लिये अनेक प्रकार के उद्यम करता है। प्रायः इनका उठना-बैठना निम्न वर्ग के लोगों के साथ रहता है। ऐसे लोग दूसरे जाति में विवाह के समर्थक होते हैं।

तैतिल:-  इसका प्रतीक चिन्ह गधा है। यह भी चर करण की श्रेणी में है। इसे अशुभ फल देने वाला तथा सुप्त अवस्था का करण माना गया है। ऐसे लोग आलसी और आरामतलबी किस्म के होते हैं। मेहनती होते हैं किन्तु इनके द्वारा किये गए कामों का विशेष महत्त्व नहीं दिया जाता है। ये खाने के शौक़ीन होते हैं।

गर:- यह चर करण है तथा इसका प्रतीक चिन्ह हाथी है। इसे प्रौढ़ माना गया है तथा इसकी अवस्था बैठी हुई मानी गई है। ऐसे जातक सामाजिक मान-सम्मान और प्रतिष्ठा को प्राप्त करता है। सामान्यतः लोग शांत स्वभाव के होते हैं परन्तु जब गुस्से में होते है तो किसी भी हद तक जा सकते हैं।

वणिज:- यह भी चर करण है तथा इसका प्रतीक चिन्ह सांड अथवा गौ माता को माना गया है । इस करण की अवस्था भी बैठी हुई मानी गई है। वस्तुतः एक संघर्षशील स्थिति और उस पर विजय पाने की योग्यता को दर्शाता है। ऐसे जातक हमेशा कार्य में व्यस्त रहते हैं। ऐसे लोग व्यापारिक कार्यो में विशेष रुचि लेते हैं अतः इन्हें नौकरी करने के स्थान पर खुद का व्यापार कार्य करना चाहिए।

विष्टि अर्थात भद्रा:- यह चर करण है। इसका प्रतीक चिन्ह मुर्गी व उल्लू को माना गया है। इसे मध्यम फल देने वाला कहा गया है। इसकी अवस्था बैठी हुई मानी गई है। इस करण में कोई शुभ काम नहीं करना चाहिए। ऐसे लोग पाप कर्म में लिप्त होते है। लड़ाई-झगड़ा ,चोरी-डकैती जैसे कार्य में इन्हें सफलता मिलती है। इनकी प्रवृत्ति तामसिक होती है और इससे सम्बन्धित कार्य में इनकी सक्रियता ज्यादा होती है। इनका सिक्स सेंस अत्यंत ही सक्रिय होता है।

जाने ! स्थिर करण कौन-कौन से है ?

शकुनि:- स्थिर करण। इसका प्रतीक कोई भी पक्षी है। यद्यपि इसकी अवस्था ऊर्ध्वमुखी है फिर भी इसे सामान्य फल देने वाला करण माना जाता है। ऐसे लोग संकीर्ण मानसिकता के हो सकते है। स्वयं को सामूहिक कार्यों से अलग रहना पसंद करते हैं। स्वतन्त्र विचार के होते है इस कारण अपने लोगों से विरोध का सामना करना पड़ता है। Depression Yoga in Vedic Astrology 

किस्तुघ्न:- यह स्थिर करण है। इसके प्रतीक माने जाते हैं कृमि, कीट और कीड़े। इसका फल सामान्य है तथा इसकी अवस्था ऊर्ध्वमुखी मानी जाती है। जातक स्वयं के कुल की रक्षा करता है। संयुक्त परिवार में रहना पसंद करता है। ऐसे लोग ग्रुप में मिलकर काम करना पसंद करते हैं। समाज में इनका विशेष अस्तित्व दृष्टिगोचर नहीं होता है। कोई समस्या आने पर तुरंत घबरा जाते हैं।

चतुष्पद:- यह भी स्थिर करण है। इसका प्रतीक है चार पैर वाला पशु। इसका भी फल सामान्य है तथा इसकी अवस्था सुप्त मानी जाती है। ऐसे लोगों की बुद्धि तेज होती है परन्तु इन्हें बुद्धि का एहसास कराना पड़ता है। एक जगह स्थिर हो गए तो वहीँ के हो रहते हैं। सभी प्रकार के खाना इन्हें पसंद है। झगड़ालू प्रवृत्ति के होते हैं परन्तु वफादार भी होते हैं।

नाग:- यह भी स्थिर करण है। इनका प्रतीक चिन्ह सर्प को माना गया है। इन्हें गुप्त रूप से कार्य करना पसंद है। इनके पास रूप बदलने की विशेष कला मौजूद होती है। ऐसे जातक स्वाभिमानी होते हैं कभी भी अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं करते हैं। सामान्यतः किसी को परेशान नहीं करते है परन्तु यदि कोई इन्हें परेशान करें तो छोड़ते नहीं है।

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