Janeu | जनेऊ यज्ञोपवीत की वैज्ञानिकता और महत्त्व
Janeu | जनेऊ यज्ञोपवीत की वैज्ञानिकता और महत्त्व | जनेऊ / यज्ञोपवीत तीन धागों से बना हुआ एक ऐसा सूत्र है हर क्षण अनुशासित रहने कि शिक्षा देता है। संस्कृत भाषा में जनेऊ को ‘यज्ञोपवीत’ कहा जाता है। जनेऊ संस्कार को “उपनयन संस्कार” भी कहते हैं। जनेऊ को यज्ञसूत्र, मोनीबन्ध, व्रतबन्ध, बलबन्ध और ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। प्राचीन काल में जनेऊ पहनने के बाद ही बालक को शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिलता था।
यज्ञोपवीत जिसे जनेऊ भी कहा जाता है वह अत्यन्त पवित्र है इसके विषय में कहा भी गया है —
ॐ यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं, प्रजापतेयर्त्सहजं पुरस्तात्।
आयुष्यमग्र्यं प्रतिमुञ्च शुभ्रं, यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः॥
प्रजापति ने स्वाभाविक रूप से जनेऊ निर्माण किया है। जनेऊ का धागा कच्चे सूत से बना हुआ होता है। जनेऊ को व्यक्ति बाएं कंधे के ऊपर इस प्रकार पहना जाता है कि दाईं कमर के नीचे तक पहुच जाये। यह आयु, विद्या, यश और बल को बढ़ानेवाला है।
हिन्दू धर्म के 16 संस्कार में यज्ञोपवीत संस्कार
हिंदू धर्म के महत्त्वपूर्ण 16 संस्कारों में एक संस्कार जनेऊ / यज्ञोपवीत संस्कार भी है । भारतीय हिन्दू धर्म में 16 संस्कार निम्नलिखित है।
- गर्भाधान
- पुंसवन
- सीमन्तोन्नयन
- जातकर्म
- नामकरण
- निष्क्रमण
- अन्नप्राशन
- चूड़ाकर्म
- विद्यारम्भ
- कर्णवेध
- यज्ञोपवीत / जनेऊ
- वेदारम्भ
- केशान्त
- समावर्तन
- विवाह
- अन्त्येष्टि
जनेऊ / यज्ञोपवीत संस्कार न केवल धार्मिक दृष्टि से बल्कि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी बहुत महत्त्वपूर्ण है।
जनेऊ के तीन सूत्र के सम्बन्ध में मत्त्वपूर्ण बातें !
- यह तीन सूत्र देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक होते हैं।
- यह तीन सूत्र सत्व, रजस् और तमस् का प्रतीक है।
- यह तीन सूत्र शरीर में उपस्थित प्राण शक्ति इडा, पिंगला तथा सुषुम्ना नाड़ी का प्रतीक है।
- यह तीन सूत्र गायत्री मंत्र विद्यमान चरणों का प्रतीक है।
- यह तीन सूत्र तीन आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ का प्रतीक है।
- यह तीन सूत्र तीनो काल भूतकाल, वर्तमानकाल तथा भविष्यतकाल का भी प्रतीक है।
- यह काल रक्षक के रूप में भी प्रतिष्ठित है।
- यह तीन सूत्र त्रिदोष कफ, पित्त तथा वात्त को भी नियंत्रित करता है।
जनेऊ में उपसूत्र
जनेऊ में कुल ९ सूत्र और उपसूत्र होते है। ऊपर तीन सूत्र बताया गया है परन्तु प्रत्येक तीन सूत्रों तीन तीन उपसूत्र होते है इस प्रकार कुल ९ सूत्र और उपसूत्र हो जाते है। इस तरह कुल सूत्रों की संख्या नौ हो जाती है। नौ सूत्रों का संकेत निम्न प्रकार से है –
- मुख, 1
- नसिका 2
- आंख 2
- कान 2
- मूत्र द्वार 1
- मल द्वार 1
इस प्रकार सभी मिलकर कुल 9 हो जाते हैं। इसका अर्थ है कि हम मुख से सत्य और प्रिय वचन बोले और खाएं, नेत्रो से सूंदर देंखे और कानों से सुवचन सुने।
जनेऊ की लंबाई कितनी होती है
जनेऊ/यज्ञोपवीत की लंबाई भी निश्चित होती है ।जनेऊ बनाते समय लम्बाई का विशेष ध्यान रखा जाता है। यदि लम्बाई कम है तो वह दोष माना जाता है। जनेऊ की लम्बाई 96 अंगुल होती है। जनेऊ की लम्बाई यह सूचित करता है कि जो भी इसे धारण करें उसे 32 विद्याओं (चार वेद, चार उपवेद, छह अंग, छह दर्शन, तीन सूत्रग्रंथ, नौ अरण्यक ) और 64 कलाओं को जानने और सीखने का प्रयास करना चाहिए। 64 कलाओं में जैसे- साहित्य कला, कृषि ज्ञान, वास्तु निर्माण, व्यंजन कला, चित्रकारी, दस्तकारी, भाषा, यंत्र निर्माण, सिलाई, कढ़ाई, बुनाई, दस्तकारी, आभूषण निर्माण आदि।
जनेऊ में कितने गाँठ होते है
जनेऊ /यज्ञोपवीत में पांच गाँठ लगाई जाती है जो धर्म, अर्ध, काम, मोक्ष और ब्रह्म का प्रतीक है। यह पांच यज्ञों, ऋषि यज्ञ, देव यज्ञ, बलि वैष्वानर यज्ञ, अतिथि यज्ञ व पितृ यज्ञ नामक पांच यज्ञों का नित्य विधान बताया गया है। पञ्च ज्ञानेद्रियों (आंख कान नाक त्वचा जिह्वा) और पंच कर्मों का प्रतीक है।
जनेऊ धारण करने की आयु
प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी उस समय प्राय: 8 वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो जाता था। इसके बाद बालक पढने के लिए गुरुकुल चला जाता था। यज्ञोपवीत संस्कार से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी जिसका पालन गृहस्थाश्रम में आने से पूर्व तक किया जाता था। इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य अनुशासित जीवन व्यतीत करने से है।
जनेऊ धारण करने का उम्र मुख्यतौर पर बालक के जन्म से ब्राह्मण 8 वें वर्ष में, क्षत्रिय 11 वे, तथा वैश्य 12 वे वर्ष में यज्ञोपवीत धारण करें। किसी कारणवश इस काल विशेष में यज्ञोपवीत संस्कार नहीं हो सका तो ब्राह्मण 16 वें वर्ष में, क्षत्रिय 22 वे, तथा वैश्य 24 वे वर्ष में यज्ञोपवीत संस्कार करा सकते है। ब्राम्हण का वसंत ऋतु में, क्षत्रिय का ग्रीष्म में और वैश्य का उपवीत शरद ऋतु में होना चाहिए।
जनेऊ /यज्ञोपवीत संस्कार का मुहूर्त
जनेऊ का धारण शुभ दिन में किया जाता है। जनेऊ धारण कि प्रक्रिया तथा उम्र में स्थान विशेष में अन्तर पाया जाता है। किसी स्थान विशेष में एक निश्चित उम्र तक जनेऊ धारण संस्कार करना जरूरी होता है तो कहीं उम्र की कोई बाध्यता नहीं होती है।
जनेऊ धारण करते वक्त बालक के हाथ में एक दंड होता है। वह बिना सिले हुए एक ही वस्त्र पहनता है। गले में पीले रंग का दुपट्टा होता है। मुंडन करके उसके शिखा रखी जाती है। पैर में खड़ाऊ होती है।
शास्त्र केअनुसार ज्येष्ठ पुत्र का यज्ञोपवीत ज्येष्ठ मास में नहीं करना चाहिए। पुनर्वसु नक्षत्र में ब्राह्मण का उपनयन नहीं करना चाहिए। बुध के अस्त होने पर बुधबार को उपनयन न करे। मुहूर्त के दिन चन्द्रमा बालक की राशि से ४८१२ नहीं होना चाहिए
माघ से लेकर छ: मास उपनयन के लिए बढ़िया समय माना जाता है।
तिथि :- दूसरी, तीसरी, पंचमी, षष्ठी दशमी एकादशी त्रयोदशी तथा पूर्णमासी तिथियां शुभ मानी गयी है।
दिन :- बुध, बृहस्पति एवं शुक्र सर्वोत्तम दिन हैं, रविवार मध्यम तथा सोमवार बहुत कम योग्य है। किन्तु मंगल एवं शनिवार निषिद्ध माने जाते हैं।
नक्षत्र :– हस्त, चित्रा, स्वाति, पुष्य, घनिष्ठा, अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, श्रवण एवं रेवती नक्षत्र शुभ माने गए हैं। एक यह भी नियम यह है कि भरणी, कृत्तिका, मघा, विशाखा, ज्येष्ठा, शतभिसा को छोड़कर अन्य सभी नक्षत्र उत्तम हैं।
जनेऊ धारण करने वालों के लिए ध्यातव्य नियम
जनेऊ / यज्ञोपवीत को मल-मूत्र विसर्जन के पहले दाहिने कान पर चढ़ा लेना चाहिए और हाथ स्वच्छ करके ही उतारना चाहिए। यह हमें अनुशासन का पाठ पढ़ाता है।
यज्ञोपवीत शरीर से बाहर नहीं निकालना चाहिए यदि बाहर निकालते है तो तुरंत दूसरा जनेऊ पहन लेना चाहिए।
यज्ञोपवीत का कोई धागा टूट जाए तो उसे तुरंत बदलकर नया जनेऊ धारण करना चाहिए।
यदि जनेऊ 6 माह या उससे अधिक समय का हो जाए, तो बदल देना चाहिए।
जनेऊ / यग्योपवीत में अधिकाँश लोग चाभी या चाभी का गुच्छा लटकाये रखते है ऐसा करना ठीक नहीं होता है कभी भी जनेऊ में चाबी के गुच्छे आदि नहीं बांधने चाहिए।
जनेऊ धारण करने से पहले उसमे हल्दी जरूर लगा देना चाहिए।
वैज्ञानिक दृष्टि में जनेऊ का महत्त्व
वैज्ञानिक दृष्टि से भी जनेऊ पहनना स्वास्थ्य के दृष्टि से लाभदायक है। यह हमें स्वस्थ्य बनाये रखने में सहायता करता है।
जनेऊ के हृदय मध्य से गुजरता है अतः यह हृदय रोग से बचाता है।
हमारे कान में एक नस होता है जीका जिसका सीधा सम्बन्ध मस्तिष्क से होता है जब जनेऊ के माध्यम से यह नस दबता है है तो मस्तिष्क की कोई सोई हुई तंद्रा कार्य करने लगती है जो हमें स्मरण शक्ति एवम विवेकशक्ति बढ़ाने में कार्य करती है।
हमारे दाएं कान की नस अंडकोष और गुप्तेन्द्रियों से जुड़ी होती है। मूत्र विसर्जन के समय दाएं कान पर जनेऊ लपेटने से शुक्राणुओं की रक्षा होती है।
मल-मूत्र करने से पहले जनेऊ को हम कानों पर कस कर दो बार लपेटते हैं जिससे कान के पीछे की नसें, जिनका संबंध पेट की आंतों से होता है,नस के दबने से आंतों पर भी दबाव पड़ता है जिससे मल
विसर्जन आसानी से हो जाता है।
कान के पास ही एक ऐसा नस होता है जो मल-मूत्र विसर्जन के समय सक्रिय होता है उससे कुछ द्रव्य निकलता है। जनेऊ उस द्रव्य को रोक देता है, जिससे पेट के रोग, कब्ज, एसीडीटी, मूत्रन्द्रीय रोग, हृदय के रोग, रक्तचाप जैसे अन्य संक्रामक रोग होने से रोकते है।
यह हमें बार-बार आने वाले बुरे स्वप्नों से भी मुक्ति दिलाती है।
कान में जनेऊ लपेटने से मनुष्य में सूर्य नाड़ी जाग्रत हो जाता है जिससे मनुष्य में दिव्यता बनी रहती है।
जनेऊ पाचन संस्थान को ठीक करता है और पेट तथा शरीर के निचले अंगों में विकार नहीं लाने देता है।
जनेऊ ‘एक्यूप्रेशर’ के विकल्प के रूप में भी कार्य करता है।
जनेऊ हमें लकवा अथवा पक्षाघात बीमारियों से बचाता है।