जितिया व्रत 2020 जानें ! जीवितपुत्रिका व्रत महत्व, तिथि, विधि और कथा

जितिया व्रत 2022 जानें ! जीवित्पुत्रिका व्रत महत्व, तिथि, विधि और कथा

जितिया व्रत 2022 जानें ! जीवित्पुत्रिका व्रत महत्व, तिथि, विधि और कथाजितिया व्रत 2022 जानें ! जीवित्पुत्रिका व्रत महत्व, तिथि, विधि और कथा. इस वर्ष आश्विन मास, कृष्ण पक्ष, अष्टमी तिथि 18 सितम्बर 2022 को है और उस दिन महिलाएं जितिया वा जीवित्पुत्रिका व्रत मनाएंगी । माता अपने बच्चों के दीर्घायु एवं स्वस्थ्य जीवन के लिए जितिया व्रत रखती है। इस व्रत में मां अपने बच्चों के परम् कल्याण हेतु पुरे चौबीस घंटे का निर्जला उपवास रखती हैं। माता इस उपवास में पानी की एक बूंद का भी सेवन नहीं करती है। यदि यह उपवास पानी से किया जाता है तो इसे “खुर जितिया” कहा जाता है।

आश्विन कृष्ण अष्टमी के प्रदोषकाल में पुत्रवती महिलाएं जीमूतवाहन की पूजा करती हैं। कैलाश पर्वत पर भगवान शंकर माता पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि आश्विन कृष्ण अष्टमी के दिन उपवास रखकर जो स्त्री सायं प्रदोषकाल में जीमूतवाहन की पूजा करती हैं तथा कथा सुनने के बाद आचार्य को दक्षिणा देती है, वह पुत्र-पौत्रों का पूर्ण सुख प्राप्त करती है। व्रत का पारण दूसरे दिन अष्टमी तिथि की समाप्ति के पश्चात किया जाता है। यह व्रत अपने नाम के अनुरूप फल देने वाला है।

यह व्रत अश्विन महीने के कृष्ण पक्ष के दौरान सप्तमी तिथि से नवमी तिथि तक अर्थात यह तीन दिन तक व्रत मनाया जाता है। व्रत का प्रथम दिन नाहाई-खाई कहलाता है इस दिन माता सुबह उठक उठकर, नित्य क्रिया से निवृत होकर नहाती है उसके बाद खाना बनाती है पुनः उस खाना को खाती है।
दूसरे दिन, मां जीवितपुत्रिका व्रत के लिए चौबीस घंटे उपवास करती है उपवास के दौरान अन्न जल और फल का पूर्णतः त्याग करती है।
तीसरे दिन, माता नित्यक्रिया से निवृत होकर स्नान के बाद पारण के साथ व्रत समाप्त करती है।

जितिया व्रत 2022 तिथि  

एक दिन पहले अर्थात 17 सितम्बर को नहाय-खाय के साथ जिउतिया व्रत शुरू होगा।  इस वर्ष अष्टमी तिथि 17 सितंबर को दोपहर 02:16 बजे लगेगी और 18 सितंबर को  16 बजकर 29 मिनट तक रहेगी। इस कारण 17 सितम्बर के 02:16 बजे के बाद से पानी नहीं पीना चाहिए। इस दिन माताएं पितृों का पूजन कर अपने बच्चों के लिए उनका आशीर्वाद भी लेती है। इस व्रत को करते समय केवल सूर्योदय से पहले ही खाया-पिया जाता है।

जितिया व्रत 2022 पूजन विधि

जितिया व्रत के पहले दिन माता स्नान करके पूजा करती हैं और फिर भोजन ग्रहण करती है। दूसरे अर्थात अष्टमी के दिन सुबह स्नान के बाद माताएं पूजा-पाठ करती हैं और फिर पुरे दिन निर्जला व्रत रखती है।

अष्टमी को प्रदोष काल में माताएं जीमूतवाहन की पूजा करती हैं। जीमूतवाहन की कुशा से निर्मित प्रतिमा को धुप,दीप, अक्षत, नैवेद्य पुष्प, रोली, फल आदि अर्पित करके फिर पूजा की जाती है। इसके साथ ही मिट्टी और गाय के गोबर से सियारिन और चील ( चुल्लो-सियारिन ) की प्रतिमा बनाई जाती है। प्रतिमा बन जाने के बाद उसके माथे पर लाल सिंदूर का टीका लगाया जाता है। पूजा ख़त्म होने के बाद जीवित्पुत्रिका व्रत की कथा सुना जाना जाता है या कथा स्वयं ही पढ़नी चाहिए।

व्रत के तीसरे दिन महिलाएं स्नान, पूजा तथा सूर्य को अर्घ्य देने के बाद पारण करती हैं। इस दिन पारण में मुख्य रूप से मटर का झोर, चावल, पोई का साग, मरुआ की रोटी और नोनी का साग खाया जाता है। कलयुग में पापों से मुक्ति का एकमात्र उपाय – श्री रामचंद्रजी के 108 नाम का जप

कहाँ-कहाँ यह त्यौहार मनाया जाता है?

यह त्यौहार मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश, झारखंड और बिहार राज्यों में मनाया जाता है। नेपाल में भी लोग इसे अच्छी तरह जानते हैं।

जितिया व्रत 2022 | जीवित्पुत्रिका व्रत कथा

पौराणिक कथाओं के अनुसार गन्धर्वों के राजकुमार जीमूतवाहन अत्यंत उदार, परोपकारी और बुद्धिमान थे। पिता ने वृद्धावस्था में वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय जीमूतवाहन को राजसिंहासन पर बैठाया परन्तु इनका मन राज-कार्य में नहीं लग रहा था। अंततः वे अपने राज्य की जिम्मेदारी अपने भाइयों पर छोडकर स्वयं वन में पिता की सेवा करने चले गए।

जंगल में ही उनका विवाह मलयवती नामक राजकन्या से हो गया। एक दिन वन में भ्रमण करते हुए जीमूतवाहन काफी दूर चले गए, तब उन्हें एक वृद्धा विलाप करती हुई दिखी। महिला से पूछने पर उसने रोते हुए कहा – मैं नागवंशकी स्त्री हूं और मुझे एक ही पुत्र है। पक्षिराज गरुड के समक्ष नागों ने उन्हें प्रतिदिन भक्षण हेतु एक नाग सौंपने की प्रतिज्ञा की हुई है। आज मेरे पुत्र शंखचूड की बलि का दिन है।

जीमूतवाहन ने वृद्धा को आश्वासन देते कहा – डरो मत, मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रक्षा करूंगा। आज तुम्हारे पुत्र के स्थान पर मैं स्वयं अपने आपको उसके लाल कपडे में ढंककर वध्य-शिला पर लेटूंगा। इतना कहकर जीमूतवाहन ने शंखचूड के हाथ से लाल कपडा ले लिया और वे उसे लपेटकर गरुड को बलि देने के लिए चुनी गई वध्य-शिला पर लेट गए।

अपने निश्चित समय पर गरुड अत्यंत वेग से आए और वे लाल कपडे में ढंके जीमूतवाहन को पंजे में दबोचकर पहाड के शिखर पर जाकर बैठ गए। अपने चंगुल में फंसे प्राणी की आंख में आंसू और मुंह से आह निकलता न देखकर गरुडजी बड़े आश्चर्यचकित हुए । उन्होंने जीमूतवाहन से उनका परिचय पूछा। जीमूतवाहन ने सारा वृतांत सुनाया।

गरुड जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रक्षा करने में स्वयं का बलिदान देने की हिम्मत से बहुत प्रभावित हुए। खुश होकर गरुड जी ने जीमूतवाहन को जीवन-दान दे दिया तथा नागों की बलि न लेने का वरदान भी दे दिया।

इस प्रकार जीमूतवाहन के अदम्य साहस से नाग-जाति की रक्षा हुई और तबसे पुत्र की सुरक्षा हेतु जीमूतवाहन की पूजा की परम्परा प्रारम्भ हो गई। मां अपने बच्चों के उन्नत स्वास्थ्य, सफलता, भाग्यवृद्धि और दीर्घायु के लिए इस दिन उपवास रखती है।

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